इस पोस्ट में हम समाजशास्त्र क्या है (Best Definition of Society : Sociology meaning in hindi) और समाजशास्त्र के क्या क्षेत्र हैं? (Scope of Sociology) के बारे में जानेंगे

Sociology meaning in hindi , Scope of Sociology

समाजशास्त्र एवं समाज (Sociology and Society)

 

परिचय (Introduction) : Sociology meaning in hindi

“समाजशास्त्र के अध्ययन में ‘समाज’ की धारणा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है | समाज ही व्यक्ति की क्रियाओं पर नियंत्रण लगाता है और व्यवहार की सीमाओं को स्पष्ट करता है | इसमें कितनी ही कमियां और दोष हों, सम्पूर्ण मानव-इतिहास में समाज जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का सबसे महत्वपूर्ण आधार है |”

  समाज की अवधारणा ( Meaning of Society )

समाजशास्त्र की अवधारणाओं में निम्नांकित कारणों से समाज को प्राथमिक एवं मौलिक कहा जाता है –

(1) सामाजिक सम्बंध (Social Relations) समाजशास्त्र का मूल तत्व है | इस समस्या का अध्ययन समाज का अध्ययन समाज के द्वारा ही संभव है |

(2) व्यक्ति और उसकी क्रियाएं सामाजिक संबंधों का निर्माण करती हैं | व्यक्ति का समाज से पृथक होकर रहना संभव नहीं है | इस दृष्टि से भी समाज का अध्ययन आवश्यक है|

(3) सामाजिक घटनाएं और सामाजिक जीवन समाज में ही संभव है| इस दृष्टि से भी समाज का अध्ययन अनिवार्य है| समाजशास्त्र की अवधारणा को समझने के लिए इसे निम्नांकित भागों में विभाजित किया गया है –

१. *समाज का सामान्य अर्थ*-

साधारण बोलचाल की भाषा में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग ‘व्यक्तियों के समूह’ (Group of People) के लिए किया जाता है| जीवन के हर क्षेत्र में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग सबसे अधिक किया जाता है| जब हम एक से अधिक व्यक्तियों के संगठन को व्यक्त करना चाहते हैं तो उसके लिए ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं| 

२. *समाज का समाजसस्त्रीय अर्थ*- समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है| जब समाजशास्त्र समाज का ही विज्ञान है, तो यह आवश्यक हो जाता है कि इसके अंतर्गत ‘समाज’ के वैज्ञानिक अर्थ की विवेचना की जाय | जब समाजशास्त्र में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उसका तात्पर्य व्यक्तियों का समूह न होकर उनके बीच पाए जाने वाले संबंधों की व्यवस्था से है|

      *समाज की परिभाषा*     (Definition of Society) :

“समाज रीतियों, कार्य प्रणालियों, अधिकारों और पारस्परिक सहायताओं, अनेक समूहों और विभाजनों, मानव-व्यवहार के नियंत्रणों और स्वतंत्रताओं की व्याख्या है| इस सतत परिवर्तनशील जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं| यह सामाजिक संबंधों का जाल है और यह सदैव परिवर्तित होता रहता है |”

*समाज की प्रमुख विशेषताएं* (Main Characteristics of Society)

समाज और उसकी प्रकृति को स्पष्टत: समझने के लिए यहां हम उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं पर विचार करेंगे जो सभी समाजों में सार्वजनिक रूप से पाई जाती है | ये स्पष्टताओं निम्नलिखित है –

1. *समाज अमूर्त है*- समाज व्यक्तियों का समूह न होकर और मैं पनपने वाले सामाजिक संबंधों का जाल है| सामाजिक संबंध अमूर्त है| इन्हें न तो देखा व छुआ जा सकता है | इन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है| अतः सामाजिक संबंधों के आधार पर निर्मित समाज भी अमूर्त है| यह तो अमूर्त सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था है | राइटर के अनुसार समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है | यह तो समूह के व्यक्तियों के बीच संबंधों की व्यवस्था है | राइटर ने लिखा है कि जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं है बल्कि जीवित रहने की एक प्रक्रिया है उसी प्रकार समाज एक वस्तु नहीं है बल्कि संबंध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है| स्पष्ट है कि समाज एक अमूर्त

धारणा है |

२. *समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है*- समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है। समाज भौतिक प्राणियों का समूह नहीं है। यह तो भौतिक प्राणियों के बीच जो संबंध पाए जाते हैं, उनकी एक व्यवस्था है। इसलिए समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है।

३. *पारस्परिक जागरूकता*- पारस्परिक जागरूकता के अभाव में न तो सामाजिक संबंध बन सकते हैं और न ही समाज। जब तक लोग एक दूसरे को उपस्थिति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से परिचित नहीं होंगे तब तक उनमें जागरूकता नहीं पाई जा सकती और अंतः क्रिया भी नहीं हो सकती। इस जागरूकता के अभाव में वे न तो एक दूसरे से प्रभावित होंगे और न ही प्रभावित करेंगे अर्थात उनमें अंतः क्रिया नहीं होगी। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक संबंधों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है और इस जागरूकता के आधार पर निर्मित होने वाले सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था को ही समाज का गया है।

४. *समाज में समानता और असमानता*- समाज में समानता और असमानता दोनों पाई जाती हैं। ये दोनों तत्त्व समाज के लिए आवश्यक हैं। दोनों की व्याख्या निम्नांकित है –

*समानता*- समानता समाज का भौतिक तत्त्व है। समानता और समानता की भावना के अभाव में ‘साथ होने की भावना’ (Belonging to together) की पारस्परिक मान्यता नहीं हो सकती। ऐसी अवस्था में समाज का अस्तित्व सम्भव नहीं है। दोनों प्रकार की समानता आवश्यक – शारीरिक और मानसिक। मनुष्य की शारीरिक बनावट समान है, अतः उनकी आवश्यकताएं भी समान हैं। अपनी आवश्यकताओं की समानता के लिए वे एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं और सहयोग स्थापित करते हैं। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक संबंधों का जन्म होता है। सामाजिक संबंधों के कारण उनमें एक होने की चेतना का विकास होता है।

*असमानता*- जिस प्रकार समाज में समानता आवश्यक है, उसी प्रकार असमानता भी आवश्यक है। असमानता के अभाव में समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यदि सभी व्यक्ति समान होते तो उनके सम्बंध चीटियों और मधुमक्खियों के समान ही सीमित होते। उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान न हो पाता और सहयोग की भावना का विकास न हो पाता। 

५. *अन्योन्याश्रितता*- अन्योन्याश्रितता का अर्थ है एक-दूसरे पर आश्रित होना। समाज के निर्माण में जिन संस्थाओं और समूहों का योग है, वे स्वतंत्र नहीं हैं। ये एक-दूसरे पर आधारित और निर्भर हैं। उदाहरण के लिए, परिवार स्वंंय में स्वतंत्र इकाई नहीं है। परिवार के विकास और उन्नति के लिए इसे राज्य, धर्म और आर्थिक संस्थाओं पर आश्रित रहना पड़ता है। जब बालक पैदा होता है तो उसे जिन्दा रहने के लिए मां पर आश्रित रहना पड़ता है। इसके बाद वह परिवार के अन्य सदस्यों पर आश्रित रहता है। परिवार के बाद पड़ोस और मित्रों पर आश्रित रहता है। बाद में द्वितीयक समूहों पर आश्रित रहता है जिसमें शिक्षा संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं, आर्थिक संस्थाएं और राज्य संस्थाएं सम्मलित हैं।

*समाज और एक समाज में अंतर* (Difference between Society and a Society)   

 

*समाज*

a. समाज अमूर्त अवधारणा है।

b. समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था का नाम है।

c. समाज सामाजिक संबंधों के कारण जटिल होता है।

d. क्षेत्र की दृष्टि से समाज विस्तृत है।

e. समाज के लिए भौगोलिक सीमाओं की आवश्यकता नहीं होती है।

            *एक समाज*

a. एक समाज मूर्त अवधारणा है जैसे- भारतीय किसानों का समाज।

b. एक समाज व्यक्तियों का एक झुण्ड होता है।

c. एक समाज में तुलनात्मक सरलता पाई जाती है।

d. एक समाज संकुचित है।

e. एक समाज के लिए भौगोलिक सीमा अनिवार्य है।

 *समाजशास्त्र का परिचय*

(Introduction to Sociology)

समाजशास्त्र समाज का क्रमबद्ध अध्ययन करने वाला विज्ञान है। 1838 ई. में ऑगस्ट कॉम्टे ने समाजशास्त्र की स्थापना की थी। इसलिए इन्हें समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है। समाजशास्त्र को अंग्रेजी में Sociology कहा जाता है। Sociology दो शब्दो से मिलकर बना है (Socius + Logos) Socius लैटिन भाषा का शब्द है और Logos ग्रीक भाषा का शब्द है। इन दोनों का अर्थ है समाज और विज्ञान इसलिए Sociology का अर्थ हैं समाज का विज्ञान। इस प्रकार समाजशास्त्र का अर्थ हुआ *वह विज्ञान जिसमें समाज से सम्बंधित ज्ञान का अध्ययन किया जाता है*।

*समाजशास्त्र की परिभाषा* (Definition of Sociology) Sociology meaning in hindi

समाजशास्त्र मुख्य रूप से समाज, सामाजिक संबंधों, सामाजिक जीवन, सामाजिक घटनाओं, व्यक्तियों के व्यवहार एवं कार्यों, सामाजिक समूहों एवं सामाजिक अंतरक्रियाओं का अध्ययन करने वाला विषय है। यह एक आधुनिक विज्ञान है। इसमें मानव व्यवहार के प्रतिमानों और नियमित्तताओं पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया जाता है।

     *समाजशास्त्र की प्रकृति*     (Nature of Sociology)

समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है, प्राकृतिक विज्ञान नहीं- समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है क्योंकि इसकी विषय वस्तु मौलिक रूप से सामाजिक है अर्थात् इनमें समाज, सामाजिक घटनाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक संबंधों तथा अन्य सामाजिक पहलुओं एवं तथ्यों का अध्ययन किया जाता है।

*समाजशास्त्र एक विज्ञान क्यों*? (Why Sociology is a Science?)

समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है। इस कथन की पुष्टि के लिए ये प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

1.*समाजशास्त्र विज्ञान है*- व्यवस्थित या क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र को इसलिए विज्ञान कहा जाता है, क्योंकि इनके सम्बंध में प्राप्त ज्ञान व्यवस्थित होता है। यही बात अन्य विषयों के बारे में भी लागू होती है। समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है, जो सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र समाज का अध्ययन व्यवस्थित ढंग से करता है, इसलिए यह एक विज्ञान है।

2. *समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग करता है*- समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धतियां वैज्ञानिक हैं और इसके नियम सार्वभौमिक होते हैं। इन नियमों की परीक्षा और पुन: परीक्षा की जा सकती है। समाजशास्त्र की पद्धतियां हैं-

सामाजिक अवलोकन (Social Observation), व्यक्तिगत जीवन अध्ययन-पद्धति (Case-study Method), समाजमिति (Sociometry), सामाजिक सर्वेक्षण (Social Survey) आदि। इन पद्धतियों के माध्यम से समाज से सम्बंधित तथ्यपूर्ण नियमों का निर्माण किया जाता है।

3.*समाजशास्त्र वास्तविक घटनाओं का अध्ययन करता है*- समाजशास्त्र नियामक विज्ञान ( Normative Science) नहीं है, जहां ‘क्या होना चाहिए’ का वर्णन किया जाता है। समाजशास्त्र तो वास्तविक परिस्थितियों का अध्ययन करता है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि समाजशास्त्र सकारात्मक विज्ञान ( Positive Science) के रूप में ‘क्या है’ का वर्णन करता है। सामाजिक परिस्थितियां जिस रूप में हैं, समाज में जो तथ्य जिस रूप में पाए जाते हैं, उनका ठीक उसी रूप में अध्ययन किया जाता है।

*समाजशास्त्र की विषेशतायें* (Characteristics of Sociology)

अ) *समाजशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान है*: समाजशास्त्र अब पूर्ण रूप से एक स्वतंत्र सामाजिक विज्ञान विषय बन चुका है। अब इसे इतिहास, राजनैतिक विज्ञान अथवा दर्शनशास्त्र की तरह ही किसी सामाजिक विज्ञान की शाखा के रूप मे नहीं जाना जाता है। एक स्वतंत्र सामाजिक के विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र का अपना अध्ययन क्षेत्र, सीमा तथा विधि विकसित हुई है।

ब) *समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है, वह कोई भौतिक विज्ञान नहीं है*: वह भौतिकी, रसायन विज्ञान या जीव विज्ञान से बिल्कुल अलग एक स्वतंत्र सामाजिक विज्ञान है। इसके अंतर्गत मनुष्य, उसका सामाजिक व्यवहार, सामाजिक क्रिया-कलाप तथा पूरा सामाजिक जीवन आता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता हैं कि-

1.समाजशास्त्र सामाजिक दर्शन से उत्पन्न होकर स्वतंत्र व समग्र रूप से विकसित हुआ है।

2.समाजशास्त्र का विकास सामाजिक दर्शन से उस दौर में हुआ जब यह महसूस किया गया कि समाज एक रचनात्मक संस्थान है और उसमें भी बदलाव आते हैं जैसा कि फ्रांसीसी तथा अमेरिकी क्रांति के दौरान हुआ।

*समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएं एवं उनका उपयोग* (Terms, Concepts and Their Uses in Sociology)

सामान्य बोलचाल की भाषा में समाज और समूह को समानार्थी समझा जाता है, किंतु समाजशास्त्र में इन दोनों की अवधारणाएं अलग हैं। समाज सामाजिक संबंधों का अध्ययन करता है, जबकि समूह व्यक्तियों का एक समूह है।

                   *समूह*         (Group)

 मनुष्य सामाजिक प्राणी तो है, वह भौतिक प्राणी भी है। उसकी अनन्त आवश्यकतायें हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने प्रयासों से नहीं कर सकता है, कारण उसके पास साधन और शक्ति सीमित है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब व्यक्ति साथ-साथ प्रयास करते हैं, तो वे समूह का निर्माण करते हैं।

सामाजिक समूह मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। वह समूह के बिना रह भी नहीं सकता है।जिस प्रकार मछली पानी से अलग जिंदा नहीं रह सकती, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति समूह से अलग अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकता है। 

*शाब्दिक अर्थ*- सामाजिक समूह दो शब्दों से मिलकर बना है – सामाजिक + समूह

सामाजिक = समाज से सम्बंधित

       समूह = दो या दो से अधिक

इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के संगठन को सामाजिक समूह कहते हैं।

            *समूह का अर्थ*      (Meaning of Group)

‘समूह एक सामाजिक इकाई है, जिसका निर्माण ऐसे व्यक्तियों से होता है, जिनके बीच कम या अधिक मात्रा में निश्चित स्थिति एवं कार्यविषयक संबंध हों।”

         *समूह की परिभाषा*        (Definition of Group)

सामाजिक समूह है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनमें अधिक समय तक संचार होता है और जो सामान्य उद्देश्य या कार्य के अनुरूप व्यवहार करते हैं।

       *समूह की विशेषतायें* (Characteristics of Group)

 सामाजिक समूह की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) *दो या दो से अधिक व्यक्ति*(Two or more Persons)- सामाजिक समूह की मौलिक विशेषता यह है कि सदस्यों की संख्या दो या दो से अधिक होनी चाहिए। अकेला व्यक्ति किसी प्रकार के समूह अथवा संगठन का निर्माण नहीं कर सकता है।

(2) *सामाजिक संबंध*(Social Relation)- इसे पारस्परिक संबंध (Reciprocal Relations) भी कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि समूह के सदस्यों में पारस्परिक संबंध का होना अनिवार्य है। पारस्परिक संबंध से उनमें चेतना का विकास होता है।यह चेतना सामाजिक संबंधों के निर्माण और विकास में सहायक होती है। 

(3) *एकता की भावना*(Sense of Unity)- सामाजिक समूह के सदस्यों में एकता पाई जाती है। इस एकता का आधार चेतना होती है। यह दो प्रकार की होती है-(a) चेतन एकता, (b) चेतन एकता।

(4) सामान्य समझ (Common Understanding)- सामाजिक समूह के सदस्यों में सामान्य समझ का होना अनिवार्य है। प्रत्येक समूह के सदस्य के कुछ सामान्य हित (Common Interest) होते हैं। इन्हीं सामान्य हितों के कारण सदस्यों में सामान्य समझ का विकास होता है। जब तक किसी समूह के सदस्य सामान्य हित पर बंधे हुए नहीं होंगे, उनके संबंधों में स्थायित्व का विकास नहीं होगा।

(5) *परस्पर सहयोग*(Mutual Co-operation) – सहयोग के अभाव में किसी भी समूह के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है, इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि सहयोग सामाजिक समूह का आधार है। प्रत्येक जीवधारी की कुछ निश्चित आवश्यकताएं होती हैं। वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है। अकेले वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता इसके लिए वह दूसरों का सहयोग प्राप्त करता है। सहयोग के आधार पर स्वत: समूह का निर्माण हो जाता है।

  *समूह और समाज में अन्तर* (Difference between Group and Society)

साधारण अर्थों में समूह और समाज को समानार्थी समझा जाता है, किंतु ये दोनों समानार्थी नहीं है। इन दोनों में मौलिक अंतर है। समाज तथा समूह में प्रमुख अंतर है-

(1)समाज अमूर्त अवधारणा है,जबकि समूह मूर्त अवधारणा है।

(2) समाज सामाजिक संबंधों पर आधारित है, जबकि समूह व्यक्तियों की संख्या पर।

(3) समाज का स्वाभाविक विकास होता है, जबकि समूह की सदस्यता ऐच्छिक होती है।

(4) समाज संगठित तथा असंगठित दोनों प्रकार का हो सकता है, किंतु समूह के लिए संगठन अनिवार्य है।

(5) समाज का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं होता है। यह सामान्य उद्देश्यों पर आधारित होता है, जबकि समूह के एक निश्चित उद्देश्य होते हैं।

           *समूहों के प्रकार*           (Kinds of Group)

मानव समूहों का वर्गीकरण अत्यंत ही महत्वपूर्ण और विस्तृत भेद में एक तरफ छोटे और घनिष्ठ समूह तथा दूसरी तरफ बड़े और व्यक्तिगत समूह हैं। समूह को दो भागों में विभाजित किया गया है- (a) प्राथमिक समूह है और (b) द्वितीयक समूह l

        *प्राथमिक समूह*         (Primary Group) 

 प्राथमिक समूहों से अभिप्राय उन समूहों से है जिनकी विशेषताएं घनिष्ठ, सम्मुख संबंध और सहयोग है। समूह कई अर्थों में प्राथमिक हैं, परंतु विशेषता इस अर्थ में है कि वे व्यक्तियों की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों को बनाने में मौलिक हैं। घनिष्ठ संबंधों का परिणाम वैयक्तिकताओं का एक सामान्य संपूर्णता में एक प्रकार से घुल-मिल जाना है जिसमें की कम- से-काम बहुत से प्रयोजनों के लिए व्यक्ति का अपना अहं समूह का सामान्य जीवन और उद्देश्य हो जाता है।

  *प्राथमिक समूह की विशेषतायें* (Characteristics of Primary Group)

(१) लघु आकार

(२) आमने-सामने का संबंध

(३) सदस्यों में घनिष्ठता

(४) तुलनात्मक स्थिर

(५) सामान्य चरित्र

(६) स्वतः जन्म।

         *द्वितीयक समूह*       (Secondary Group)

वे समूह जिनकी विशेषताएं प्राथमिक या आमने-सामने के संबंधों वाले समूहों में भिन्न होती हैं, जिनका संगठन औपचारिक होता है तथा जिनमें घनिष्ठता का अभाव पाया जाता है, द्वितीय समूह कहलाता है।

  *द्वितीयक समूह की विशेषतायें* (Characteristics of Secondary Group)

(१) बड़ा आकार 

(२) विशाल क्षेत्र

(३) घनिष्ठता का अभाव

(४) सामूहिक संबंध

(५) विशेष हित 

(६) सामूहिक उत्तरदायित्व

(७) चेतन निर्माण

(८) औपचारिक नियंत्रण 

(९) तुलनात्मक स्थिरता

                *प्रस्थिति*                  (Status)

 ‘समाज सामाजिक संबंधों का जाल है।’ सामाजिक संबंध एक विशेष समाज में ‘सामाजिक संरचना’ का निर्माण करते हैं। यह सामाजिक संरचना ‘सामाजिक व्यवस्था’ को जन्म देती है। यह सामाजिक व्यवस्था ही सामाजिक संगठन का आधार है।

    *प्रस्थिति का अर्थ एवं परिभाषा* (Meaning and Definition of Status)

प्रस्थिति शब्द अंग्रेजी भाषा Status का हिंदी रूपांतर है। Status के लिए अंग्रेजी भाषा में ही अन्य शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जैसे Rank ‘पद’ और ‘सामाजिक स्थिति’ (Social Position)l इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्थिति के साथ सामाजिक शब्द जुड़ा हुआ है। “सामाजिक पद का तात्पर्य व्यक्ति की समाज में वह प्रस्थिति (स्थान) है, जो प्रतिष्ठा तथा प्रतीकात्मक चिन्हों द्वारा पहचानी जाती है।”

            *प्रस्थिति के प्रकार*             (Kinds of Status)

पद के प्रकारों को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है-

(1) *प्रदत्त पद*- इसके नाम से स्पष्ट होता है, ये पद अपने माता-पिता,आयु- समूह, विवाह, योनि- समूह और किसी राष्ट्र या समूह का सदस्य होने के कारण अपने-आप प्राप्त होते हैं। इस पद का आधार जन्म होता है और इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। यह पद वंश- परंपरागत होते हैं और आने वाली पीढ़ियों को स्वतः हस्तांतरित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए जाति-व्यवस्था।

(2) *अर्जित पद*- अर्जित शब्द अर्जन से बना है और इसका सीधा अर्थ है अर्जन करना, प्राप्त करना, प्रयास करना,कामना आदि। आधुनिक समाज गतिशील है। इस गतिशीलता के कारण समाज के हर क्षेत्र में परिवर्तन होते हैं और इन परिवर्तनों के कारण ‘पद’ में भी परिवर्तन का होना स्वाभाविक है। अर्जित पदों में व्यक्ति की प्रयासों का अधिक महत्व होता है। यदि व्यक्ति इन पदों के लिए प्रयास नहीं करेगा तो उसे यह पद प्राप्त नहीं हो सकेंगे।

                 *भूमिका*                    (Role)

यदि हम समाज पर नजर डालें, तो ऐसा लगता है कि यह विविधताओं से भरा हुआ है। व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न तो है ही, वह मानसिक, व्यावसायिक और क्रियात्मक दृष्टि से भी एक-दूसरे से भिन्न है। इसी भिन्नता के कारण एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भिन्न पद प्राप्त होता है। कुछ अध्यापक होते हैं, तो कुछ श्रमिक। कुछ नेता होते हैं , तो कुछ अभिनेता। कुछ व्यापारी होते हैं, तो कुछ शासक। ये सभी पद व्यक्ति को उसके द्वारा संपादित भूमिका के कारण प्राप्त होते हैं। वास्तव में कार्य अथवा भूमिका ही वह आधार है, जो व्यक्ति के पदों का निर्धारण करता है।

         *भूमिका की परिभाषा*           (Definition of Role)

भूमिका किसी समूह में किसी विशेष पद से संबद्ध सामाजिक स्तर पर प्रत्याशित एवं स्वीकृत व्यवहार प्रतिमानों का संग्रहण है, जिसमें कर्तव्य एवं विशेष अधिकार दोनों सम्मिलित हैं।

     *भूमिका की विशेषताएं*   (Characteristics of Role)

 भूमिका की प्रमुख विशेषताओं को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) *व्यवहारों की संपूर्णता*- भूमिका व्यवहारों कि वह संपूर्णता है जिनको एक विशेष प्रस्थिति (पद) में होने के कारण व्यक्ति पूरा करता है।

(2) *सामाजिक स्वीकृति*- भूमिका का सम्पादन व्यक्ति विशेष की इच्छा पर आधारित नहीं है, अपितु इसका निर्धारण सम्पूर्ण समाज की स्वीकृति पर आधारित होता है। इसका कारण यह है की भूमिका का निर्धारण एक विशेष संस्कृति के नियमों के द्वारा होता है।

(3) *सामाजिक संगठन*- प्रत्येक व्यक्ति से ऐसी आशा की जाती है कि वह अपनी भूमिका का निर्वाह करे। इसका कारण सामाजिक मूल्यों के अनुसार व्यवहारों को ढालकर सामाजिक संगठन को मजबूत बनाना है।

       *सामाजिक स्तरीकरण*       (Social Stratification)

स्तरीकरण स्तर से बना है स्तर को सीढ़ियों के रूप में समझा जा सकता है। जिस प्रकार से छत में जाने के लिए अनेक सीढियां होती हैं, इनमें से कोई सीढ़ी ऊपर होती है तो कोई सीढ़ी नीचे। इसी व्यवस्था को स्तरीकरण के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार से छत में जाने के लिए अनेक सीढियां होती हैं, उसी प्रकार समाज में भी अनेक स्तर की सीढियां होती हैं। समाज की इन्हीं सीढ़ियों को सामाजिक स्तरीकरण के नाम से जाना जाता है।

  *सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा*   (Definition of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण समाज का विभिन्न स्थाई समूहों और श्रेणियों में विभाजन है जो की उच्चता और अधीनता के संबंधों से परस्पर जुड़े रहते हैं।

    *सामाजिक स्तरीकरण की विशेष तायें* (Characteristics of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण की निम्नलिखित विशेषताएं निर्धारित की जा सकती हैं-

(1)स्तरीकरण का तात्पर्य विभिन्न स्तरों और श्रेणियों से है।

(2) सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न स्तरों और श्रेणियों से संबंधित है।

(3) सामाजिक स्तरीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था विभिन्न स्तरों और श्रेणियों में विभाजित हो जाती है।

(4) ये विभिन्न स्तर और श्रेणियां होती है।

        *सामाजिक नियंत्रण*            (Social Control)

सामाजिक नियंत्रण समाज की मूलभूत आवश्यकता है। नियंत्रण के अभाव में कोई भी समाज प्रकृति नहीं कर सकता। सामाजिक समूह नियंत्रण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। समूह के दो प्रकार हैं- प्राथमिक समूह – नियंत्रण के औपचारिक साधन हैं और द्वितीयक समूह – नियंत्रण के अनौपचारिक साधन हैं।

  *सामाजिक नियंत्रण की परिभाषा*   (Definition of Social Control)

सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य उसे ढंग से है जिससे की सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था संबंधित रहती है और इसे बनाए रखती है।इससे यह सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तनशील संतुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।

  *सामाजिक नियंत्रण की विशेषतायें*   (Characteristics of Social Control)

सामाजिक नियंत्रण की निम्न विशेषताएं निर्धारित की जा सकती हैं-

(1) सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य सामाजिक दबाव के प्रतिमानों से है।

(2) सामाजिक नियंत्रण व्यक्ति और समूह पर लागू होता है।

(3) सामाजिक नियंत्रण का उद्देश्य समाज के सदस्यों के व्यवहारों और क्रियाओं में समरूपता स्थापित करना है।

(4) इस एकरूपता का उद्देश्य सामाजिक संगठन को अतिशक्तिशाली बनाना होता है।

(5) इससे सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की जाती है।

(6) सामाजिक नियंत्रण में ‘पुरस्कार’ और ‘दण्ड’ दोनों ही सम्मिलित रहते हैं।

(7) समाज में नियंत्रण स्थापित करने के लिए अनेक साधनों का प्रयोग किया जाता है।

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